parde ka raqs


परदे का रक्स .....
रोने के लिए रात का इंतज़ार क्यूँ करते हैं लोग .......जब दिल भर आये तो भरी दोपहर में भी रो सकते हैं ... लेकिन नहीं....... रोना है तो रात में ... क्यूँ की तब उन्हें कोई देखेगा नहीं ... उनकी सिसकियों को कोई सुनेगा नहीं...उनकी हिचकियों और आँखों की सूजन से लोग अंजान रहेंगे .... सारी रात रो कर सुबह मुंह घुल लेना है और फिर ऐसे नज़र आना जेसे कुछ हुआ ही नहीं ...
कमरे की दीवारें एक दुसरे को तक रही थीं .....आंसुओं में भीगा तकिया ओंधा पड़ा..... दोहर की तय की बिगड़ी नहीं थी यानि सारी रात दोहर ओढा भी नहीं .... बिस्तर पर मौजूद चादर की सिलवटें इस बात की गवाह थीं के करवटों के सिलसिले कितने कर्बनाक थे .... पानी की बोतल भी भरी हुई थी और अब तक पर्दों को भी किसी ने खिड़की के रुख से हटाया ना था .....
क्यूँ रो रही थी .....एक दीवार ने दूसरी दीवार से पुछा
मुझे क्या मालूम मगर बोहोत रोई है ..... दूसरी ने भी आहिस्ता से कहा
लोग भी कितने अजीब किस्म के होते हैं .... अपनी हर ख़ुशी,हर शादाबी का केसे मिल मिल कर अह्तमाम करते  हैं ... होड़ लग जाती है गले मिलने की .... क़ह्क़हों के झरने फूटते हैं .... नाच गाने और तरह तरह के खाने ... सजावट आराइश .. जेसे ज़मीन पर चाँद सितारे उतर आये हों .... हर शै कितनी खूबसूरत नज़र आती है ..... लेकिन मसअला अगर ग़म का हो तो .....
 यही तो मसअला है .... इंसान सिर्फ ख़ुशी का एतेराफ करता है और उसी में रिश्तों को शामिल करता है .... लेकिन रंज ओ ग़म के दायरे से जाने क्यूँ खुद को समेट कर सब से छुपा लेता है ...
ये तो सरासर बेवकूफी है ना .... पहली दीवार ने हैरत से कहा ...
बेवकूफी नहीं नासमझी है .... जब हर ख़ुशी अपने अपनों से बाँट कर ज़्यादा हो जाती है .... तो यही इन्सान ग़म को भी क्यूँ नहीं बांटता .... किसी को अपने ग़म में शामिल कर के उसे कम कर लेना भी तो शऊर की बात है .... रात में रो कर दिल भारी कर लेने से बेहतर से अपनों के रूबरू रो लिया जाये कह दिया जाये, बता दिया जाये .... तभी तो रिश्तों का भरम कायम रहता है ......
कितने नादाँ है ये इन्सान कहते हैं दीवारों के कान होते है ... फिर भी अपने हर ग़म को दीवारों से कह देते हैं .... मगर जिन अपनों की ज़बान भी मौजूद है और जो तस्कीन दे सकते हैं उन्हें अपना ग़म नहीं कहते .....
बेइरादा दीवार तकिये को देखने लगी ..... वो अब भी नम था की उसे किसी ने उठा कर देखा .... वो भी कमरे में दाखिल हुई ....
तकिया गीला है ... क्या हुआ तुम रो रही थीं ....
 हाँ तुम्हारी याद आरही थी .....
तो फ़ोन कर लेती मुझे ... कल वाकई मुझे भी तुम्हारी बोहोत याद आई ... लेकिन क्या करता कल का टिकट ही नहीं मिला इतनी कोशिश की .. फिर बस का टिकट लिया दो जगह तब्दील की बस भी तब आज आ पाया ... सॉरी मेरी वजह से तुम्हे रोना पड़ा .....
भाई होते ही ऐसे हैं मेरे ससुराल में ये मेरी पहली राखी है जिसमे में तुम से दूर थी और तुम मुझ से ...रोना तो आयगा ना भाई ....
उसने उसे सीने से लगा लिया ......
दूसरी दीवार मुस्कुराई और परदे से सरगोशी करने लगी ... देखो उसने अपने दिल का रंज बयां कर दिया .......
पर्दा हवा के साथ खिड़की पर रक्स करने लगा और दीवार ने यकदम महसूस किया के कमरे का रंग तब्दील हो रहा है .....

By Dr Zaiba 

  

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