परदे का रक्स ..... रोने के लिए रात का इंतज़ार क्यूँ करते हैं लोग .......जब दिल भर आये तो भरी दोपहर में भी रो सकते हैं ... लेकिन नहीं....... रोना है तो रात में ... क्यूँ की तब उन्हें कोई देखेगा नहीं ... उनकी सिसकियों को कोई सुनेगा नहीं...उनकी हिचकियों और आँखों की सूजन से लोग अंजान रहेंगे .... सारी रात रो कर सुबह मुंह घुल लेना है और फिर ऐसे नज़र आना जेसे कुछ हुआ ही नहीं ... कमरे की दीवारें एक दुसरे को तक रही थीं .....आंसुओं में भीगा तकिया ओंधा पड़ा..... दोहर की तय की बिगड़ी नहीं थी यानि सारी रात दोहर ओढा भी नहीं .... बिस्तर पर मौजूद चादर की सिलवटें इस बात की गवाह थीं के करवटों के सिलसिले कितने कर्बनाक थे .... पानी की बोतल भी भरी हुई थी और अब तक पर्दों को भी किसी ने खिड़की के रुख से हटाया ना था ..... क्यूँ रो रही थी .....एक दीवार ने दूसरी दीवार से पुछा मुझे क्या मालूम मगर बोहोत रोई है ..... दूसरी ने भी आहिस्ता से कहा लोग भी कितने अजीब किस्म के होते हैं .... अपनी हर ख़ुशी,हर शादाबी का केसे मिल मिल कर अह्तमाम करते हैं ... होड़ लग जाती है गले मिलने की .... क़ह्क़हों के झरने फूटते...